सामाजिक परिघटना का यथार्थ
Writter :- स्वयं मैं -
( सामाजिक परिघटना का याथार्थ)
मरहम के नीचे घाव है,
किसको यहाँ पता।
आज तक समझ न पाया,
किसको किससे खता।।
बराबर चल रहे थे यहाँ ,
एक दूसरे से बात।
किसे,कब कौन छोड़ दे,
एक दूसरे का साथ ।।
My lines :- ख्वाब बुनने की उमर में , उलझनो का जाल गहराता गया.. उड़ान की तैयारी पूरी थी , उम्मीद की बेड़ीयों के ताले खुद मे समाता गया.. कही सुनी बातों के दबाव में , अपनी कमिया नजर आने लगी.. उन्ही बातों को लेकर , खुद को दोषी ठहराता गया.. बस एक मौके की तलाश थी, डूबा हुआ और कितना डूबता.. डर को समेट कर, अपनी ताकत बनाता गया.. फ़िर ऐसा उड़ा आसमान चीरकर, गिरने की अब जो थी नहीं कोई फ़िकर.. झटक के अपने कैद पंखों को, एक नई दास्तान लहराता गया..
Writter :- स्वयं मैं -
( सामाजिक परिघटना का याथार्थ)
मरहम के नीचे घाव है,
किसको यहाँ पता।
आज तक समझ न पाया,
किसको किससे खता।।
बराबर चल रहे थे यहाँ ,
एक दूसरे से बात।
किसे,कब कौन छोड़ दे,
एक दूसरे का साथ ।।
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